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Tuesday, March 15, 2016

माया का जाल

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इस शरीर का होना हमें माया की वजह से ही दिख रहा है शरीर का अपना अस्तित्व नहीं होता हमारा शरीर पंच तत्व के मेल से बना है।  आग, हवा, पानी, मिट्टी और आकाश। इन सभी में से थोड़ा थोड़ा अंश लेकर हमारे शरीर का निर्माण हुआ है।  प्रत्येक शरीर में आत्मा का निवास है,  हमारा अहंकार और अभिमान ही हमें ईश्वर से दूर किए रहता है, जिससे माया कहते हैं। इसी माया के कारण जीव अपने को ईश्वर से अलग महसूस करता है। जबकि वास्तविक रुप में वह अलग होता नहीं।  इस ब्रह्म रूपी नदी में हमें तो बहते चले जाना है। हम एक-एक क्षण के लिए बुलबुला बन जाते हैं फिर जिस प्रकार बुलबुला फट कर नदी में ही विलीन हो जाता है उसी प्रकार हम भी वापस सृष्टि में विलीन हो जाते हैं।  यदि हम किसी बहती नदी में एक कमंडल पानी निकालते हैं और कमंडल के जल को यह भी अभिमान हो जाए कि अब उसका अलग अस्तित्व हो गया है तो यह उसकी मूर्खता कही जाएगी।  इसलिए ब्रह्म, जीव और माया, इन तीनों को ऐसा भ्रम पैदा करने का मौका न दे और केवल इसी तथ्य पर विचार करें की संपूर्ण संसार में ब्रह्म ही सत्य है। इसके सिवा कोई दूसरा संसार में नहीं है।
संत कबीर दास ने कहा है कि माया महाठग  है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे साधारण से लेकर विशिष्ट व्यक्ति तक बच नहीं सकते हैं। कुछ ऐसे भी, ज्ञानी जन हैं, जिन्हें अपने ज्ञान पर गर्व न होकर घमंड है। याद रखें घमंड कोई भी व्यक्ति करें वह उसके व्यक्तित्व को पतन की ओर ले जाता है।  जिसने भी घमंड किया उसने अपने हाथों अपना नाश किया।  घमंड भी माया का एक नकारात्मक प्रकार है।  माया की लपेट में न आने के लिए व्यक्ति को नकारात्मक गुणों के बजाए सकारात्मक गुणों को स्थान देना होगा। यह मेरा घर और यह उसका घर, यही तो माया हुई। यही माया हमें ब्रह्म तक पहुंचने,  उन्हें पहुंचाने और उन्हें पाने में रूकावट बनी हुई है। जब तक हम अपनी धारणा नहीं बदलेंगे, तब  तक अहम ब्रह्म का बोध नहीं हो पाएगा और जब अहम ब्रह्म का बोध हो जाएगा, उस दिन सारी माया मिट जायेगी और हम संसार के बंधनों से स्वत: ही मुक्त हो जाएंगे।

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